
पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है जिसने पारिवारिक संपत्ति के अधिकारों को लेकर लंबे समय से चली आ रही कानूनी उलझन को स्पष्ट कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि यदि किसी व्यक्ति को 1956 के बाद अपने पिता से कोई संपत्ति विरासत में मिली है, तो वह अब “पैतृक संपत्ति” नहीं मानी जाएगी। यानी वह संपत्ति उस व्यक्ति की “स्व-अर्जित संपत्ति” कहलाएगी।
इस फैसले के बाद, बच्चों का उस संपत्ति पर जन्म के साथ कोई अधिकार नहीं बनेगा। पिता ऐसी संपत्ति को अपनी मर्जी से बेच सकते हैं, दान कर सकते हैं या किसी को ट्रांसफर कर सकते हैं, और उनके बच्चे इस पर कोई आपत्ति या कानूनी दखल नहीं कर पाएंगे।
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मामला क्या था?
यह फैसला जस्टिस वीरेंद्र अग्रवाल ने सुनाया। यह मामला असल में साल 1994 में दर्ज की गई एक नियमित दूसरी अपील (Regular Second Appeal) से जुड़ा था। अपील में सवाल यह था कि क्या पिता की विरासत में मिली संपत्ति पैतृक मानी जाएगी या नहीं, और क्या बेटे का उसमें हिस्सा स्वतः बन जाएगा या नहीं।
मामले में संबंधित व्यक्ति ने अपने पिता से मिली संपत्ति को अपनी इच्छा से किसी और को ट्रांसफर किया था। इस पर उसके बच्चों ने आपत्ति जताई थी कि यह “पैतृक” संपत्ति है और पिता इसे बिना बच्चों की सहमति के बेच या ट्रांसफर नहीं कर सकते। लेकिन हाई कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि ऐसा दावा अब मान्य नहीं होगा।
पैतृक और स्व-अर्जित संपत्ति में क्या फर्क है?
“पैतृक संपत्ति” वह होती है जो चार पीढ़ियों से लगातार चली आ रही हो — यानी परदादा से लेकर पोते तक — और जिसे किसी एक व्यक्ति ने स्वयं अर्जित न किया हो। वहीं “स्व-अर्जित संपत्ति” वह होती है जो किसी व्यक्ति ने अपनी मेहनत, आमदनी या किसी अधिनियम के तहत अपने नाम पर प्राप्त की हो।
हाई कोर्ट ने इस फैसले में कहा कि 1956 में लागू हुए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act, 1956) के बाद, जो भी संपत्ति किसी व्यक्ति को उसके पिता से मिली है, वह उसकी “व्यक्तिगत संपत्ति” मानी जाएगी, न कि पैतृक।
बच्चों के लिए इसका क्या मतलब है?
इस फैसले का सीधा असर उन मामलों पर पड़ेगा, जहां बेटे या बेटियां पिता की विरासत में मिली संपत्ति में अपना हिस्सा मांगते हैं। अब अदालत ने साफ कर दिया है कि यदि संपत्ति 1956 के बाद विरासत में मिली हो, तो बच्चों का उस पर कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं होगा।
इसका अर्थ यह हुआ कि पिता पूरी तरह स्वतंत्र हैं कि वे ऐसी संपत्ति को अपनी इच्छा अनुसार बेचें, किसी एक बच्चे के नाम करें, या किसी ट्रस्ट को दान करें। बच्चे इस निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दे पाएंगे, क्योंकि अब कानूनी रूप से उन्हें उस संपत्ति में हिस्सा प्राप्त नहीं होगा।
क्यों है यह फैसला महत्वपूर्ण?
कई परिवारों में पैतृक संपत्ति को लेकर विवाद आम बात रही है। अक्सर यह मुद्दा अदालतों तक पहुंचता है कि कौन-सी संपत्ति पैतृक है और कौन-सी नहीं। यह फैसला ऐसी स्थिति में एक बेंचमार्क तय करता है।
इससे भविष्य में अदालतों को यह निर्धारित करने में आसानी होगी कि किस स्थिति में बच्चों का अधिकार बनता है और किसमें नहीं। यह फैसला पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे के नियमों को लेकर एक नई स्पष्टता प्रदान करता है।
कानूनी विशेषज्ञों की राय
कानूनी जानकारों का कहना है कि इस निर्णय से अनावश्यक पारिवारिक मुकदमों में कमी आएगी। अब बच्चे तभी दावा कर सकते हैं जब यह स्पष्ट साबित हो कि संपत्ति पैतृक यानी 1956 से पहले की विरासत में मिली हो या कई पीढ़ियों से चली आ रही हो।
साथ ही, कोर्ट ने यह भी संकेत दिया है कि हर व्यक्ति को अपनी संपत्ति पर स्वतंत्र स्वामित्व का अधिकार है, और परिवार के अन्य सदस्य केवल इस आधार पर दावा नहीं कर सकते कि वे उस व्यक्ति की संतान हैं।

















